कथा भगवती माता तुलसी की- Shiv Puran

 

भगवती माता तुलसी की- Shiv Puran
Basil Plant (Tulsi)

क बार देवराज इंद्र देवगुरू बृहस्पति के साथ भगवान शिव का दर्शन करने कैलाश गए। महादेव ने दोनों की परीक्षा लेनी चाही इसलिए वे रूप बदलकर अवधूत बन गए, और वो निर्वस्त्र भी थे।

उनका शरीर जलती हुई अग्नि के समान धधक रहा था और अत्यंत भयंकर नजर आते थे। अवधूत दोनों के रास्ते में खड़े हो गए। इंद्र ने एक विचित्र पुरुष को रास्ते में खड़े देखा तो चौंक गए।

इंद्र को देवराज होने का गर्व घेरने लगा। उन्होंने उस भयंकर पुरुष से पूछा तुम कौन हो? भगवान शिव अभी कैलाश पर विराज रहे हैं या कहीं भ्रमण पर हैं। मैं उनके दर्शन के लिए आया हूं।

इंद्र ने कई प्रश्न किए लेकिन वह पुरुष योगियों के समान मौन ही रहे। इंद्र को लगा कि एक साधारण प्राणी उनका अपमान कर रहा है। उनके मन में देवराज होने का अहंकार उपजा जो क्रोध में बदल गया।

इंद्र ने कहा मेरे बारबार अनुरोध पर भी तू कुछ नहीं बोलकर मेरा अपमान कर रहा है। मैं तुझे अभी दंड देता हूं। ऐसा कहकर इंद्र ने वज्र उठा लिया। भगवान शिव ने वज्र को उसी समय स्तंभित यानी जड़ कर दिया। 

इंद्र की बांह अकड़ गई। भगवान अवधूत क्रोध से लाल हो गए। बृहस्पति उनके चेहरे पर आई क्रोध की ज्वाला को देखकर समझ गए कि ऐसा प्रचंड़ स्वरूप महादेव के अतिरिक्त किसी का नहीं हो सकता। 

बृहस्पति शिवस्तुति गाने लगे। उन्होंने इंद्र को भी महादेव के चरणों में लेटा दिया और बोले प्रभु इंद्र आपके चरणों में पड़े हैं, आपके शरणागत हैं। आपके ललाट से प्रकट अग्नि इन्हें जलाने को बढ़ रही है। हम शरणागतों की रक्षा करें। बृहस्पति ने विनती की प्रभु भक्तों पर आपकी सदा कृपा बरसती है। आप भक्त वत्सल और सर्वसमर्थ हैं। आप इस तेज को कहीं और स्थान दे दीजिए ताकि इंद्र के प्राणों की रक्षा हो। 

भगवान रूद्र ने कहा बृहस्पति मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूं। इंद्र को जीवनदान देने के कारण तुम्हारा एक नाम जीव भी होगा। मेरे तीसरे नेत्र से प्रकट इस अग्नि का ताप देवता सहन नहीं कर सकते। इसलिए मैं इसको बहुत दूर छोड़ूंगा।

महादेव ने उस तेज को हाथ में धारणकर समुद्र में फेंक दिया। वहां फेंके जाते ही भगवान शिव का वह तेज तत्काल एक बालक के रूप में परिवर्तित हो गया। सिंधु से उदभव होने के कारण उसका नाम सिन्धुपुत्र जलंधर प्रसिद्ध हुआ।

जलंधर जिसका नाम शंखचूड़ भी हुआ, शिव के तेज से उत्पन्न हुआ था इस कारण परम शक्तियों से संपन्न था। वह देवों से भी ज्यादा शक्तिवान था। वह उस तेज से पैदा हुआ था जो इंद्र को समाप्त करने वाला था इसलिए असुरों ने उसे अपना राज बनाया। अवधूत रूप में यह लीला करने के बाद महादेव अंतर्धान हो गए। इंद्र के गर्व का भंजन भी हुआ भगवान के दर्शन भी हो गए।

तुलसी से जुड़ी एक कथा बहुत प्रचलित है। श्रीमद देवी भागवत पुराण में इनके अवतरण की दिव्य लीला कथा भी बनाई गई है। एक बार शिव ने अपने तेज को समुद्र में फैंक दिया था। उससे एक महातेजस्वी बालक ने जन्म लिया। यह बालक आगे चलकर जालंधर के नाम से पराक्रमी दैत्य राजा बना। इसकी राजधानी का नाम जालंधर नगरी था। 

दैत्यराज कालनेमी की कन्या वृंदा का विवाह जालंधर से हुआ। जालंधर महाराक्षस था। अपनी सत्ता के मद में चूर उसने माता लक्ष्मी को पाने की कामना से युद्ध किया, परंतु समुद्र से ही उत्पन्न होने के कारण माता लक्ष्मी ने उसे अपने भाई के रूप में स्वीकार किया। वहां से पराजित होकर वह देवी पार्वती को पाने की लालसा से कैलाश पर्वत पर गया। 

भगवान शिव का ही रूप धर कर माता पार्वती के समीप गया, परंतु मां ने अपने योगबल से उसे तुरंत पहचान लिया तथा वहां से अंतर्ध्यान हो गईं। 

देवी पार्वती ने क्रुद्ध होकर सारा वृतांत भगवान विष्णु को सुनाया। जालंधर की पत्नी वृंदा अत्यन्त पतिव्रता स्त्री थी। उसी के पतिव्रत धर्म की शक्ति से जालंधर न तो मारा जाता था और न ही पराजित होता था। इसलिए जालंधर का नाश करने के लिए वृंदा के पतिव्रत धर्म को भंग करना बहुत ज़रूरी था। 

इसी कारण भगवान विष्णु ऋषि का वेश धारण कर वन में जा पहुंचे, जहां वृंदा अकेली भ्रमण कर रही थीं। भगवान के साथ दो मायावी राक्षस भी थे, जिन्हें देखकर वृंदा भयभीत हो गईं। ऋषि ने वृंदा के सामने पल में दोनों को भस्म कर दिया। उनकी शक्ति देखकर वृंदा ने कैलाश पर्वत पर महादेव के साथ युद्ध कर रहे अपने पति जालंधर के बारे में पूछा। 

ऋषि ने अपने माया जाल से दो वानर प्रकट किए। एक वानर के हाथ में जालंधर का सिर था तथा दूसरे के हाथ में धड़। अपने पति की यह दशा देखकर वृंदा मुर्छित होकर गिर पड़ीं। होश में आने पर उन्होंने ऋषि रूपी भगवान से विनती की कि वह उसके पति को जीवित करें। 

भगवान ने अपनी माया से पुन: जालंधर का सिर धड़ से जोड़ दिया, परंतु स्वयं भी वह उसी शरीर में प्रवेश कर गए। वृंदा को इस छल का ज़रा आभास न हुआ। जालंधर बने भगवान के साथ वृंदा पतिव्रता का व्यवहार करने लगी, जिससे उसका सतीत्व भंग हो गया। ऐसा होते ही वृंदा का पति जालंधर युद्ध में हार गया। 

इस सारी लीला का जब वंदा को पता चला, तो उसने क्रुद्ध होकर भगवान विष्णु को शिला होने का श्राप दे दिया तथा स्वयं सति हो गईं। जहां वृंदा भस्म हुईं, वहां तुलसी का पौधा उगा। भगवान विष्णु ने वृंदा से कहा, ‘हे वृंदा। तुम अपने सतीत्व के कारण मुझे लक्ष्मी से भी अधिक प्रिय हो गई हो। अब तुम तुलसी के रूप में सदा मेरे साथ रहोगी। जो मनुष्य भी मेरे शालिग्राम रूप के साथ तुलसी का विवाह करेगा उसे इस लोक और परलोक में विपुल यश प्राप्त होगा। 

जिस घर में तुलसी होती हैं, वहां यम के दूत भी असमय नहीं जा सकते। गंगा व नर्मदा के जल में स्नान तथा तुलसी का पूजन बराबर माना जाता है। चाहे मनुष्य कितना भी पापी क्यों न हो, मृत्यु के समय जिसके प्राण मंजरी रहित तुलसी और गंगा जल मुख में रखकर निकल जाते हैं, वह पापों से मुक्त होकर वैकुंठ धाम को प्राप्त होता है। जो मनुष्य तुलसी व आवलों की छाया में अपने पितरों का श्राद्ध करता है, उसके पितर मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं। 

 उसी दैत्य जालंधर की यह भूमि जलंधर नाम से विख्यात है। सती वृंदा का मंदिर मोहल्ला कोट किशनचंद में स्थित है। कहते हैं इस स्थान पर एक प्राचीन गुफ़ा थी, जो सीधी हरिद्वार तक जाती थी।

।। 🕉 नम: शिवाय ।।

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